इक अंतिम गीत मैं लिख लूं, फिर चलता हूँ मैं साकी
मैं तेरी है प्यारी मुझको, पर अब भी मुझमें है कुछ मैं बाकी
अपनी मैं मैं जरा पिला दूं, खाली सबके हैं प्याले
कुछ को पीने की ख्वाहिश है, पर होटों पे हैं ताले
ये कैसे हैं पीने वाले, जरा देख तो तू साकी
मद-डगमग न कोई पग है, हैं सबके होश बाकी
जरा मैं लिख लूं के अब भी दम है , माना के अब स्याही कम है
जोड़ रहा दो शब्द मैं ताकि
इक के भी रह ना जायें होश बाकी .......
आया था तू द्वार मेरे, बैठा जो तू दो पल साकी
कैसे करूँ अपमान मैं तेरा, चलता हूँ मैं तू चल साकी
छोड़ चलूँ मैं प्याला अपना, यहीं छोड़ता हूँ हाला
दूर देस है जाना हमको, दूर है तेरी मधुशाला
बंद करूँ क्यूँ अब कमरे को, है यहाँ कहाँ अब कुछ बाकी
मैं तेरी खींचे है मुझको, अब ले चल भी तू एय साकी .....
....................
अंतिम दिन जीवन के यदि ये
पीर हृदय की रह जाए
के दौड़-धूप में बीत गए पल
प्रियतम से कुछ ना कह पाएँ
Thursday, December 31, 2009
Wednesday, December 30, 2009
आकाश की अवहेलना
दिसम्बर की सर्द दुपहरी में
धुप में कुरसी लगाये
आकाश चूमती इक पतंग पे टक-टकी बांधे बैठा हूँ
दूर से आते चिड़ियों की चेह्कन
गाड़ियों की आवाजें
कुछ दूर बैठी महिलाओं की बातें
और फिर से पतंग की सर सर
धुप का बायीं गाल को सहलाना
और आँखों का स्वयं ही बंद हो जाना
खो जाना कुछ खयालों में
पतंग सा लहराना
उस तडपती पतंग के पीछे किसी
अद्रिशय बालक और डोर का सवार्थ जुड़ा होगा
ये सोच कर हंस पड़ता हूँ
कागज़ पर पड़ी इस कविता के पीछे
इक भावुक मन का स्वार्थ जुड़ा होगा
ये सोच कर हंस पड़ता हूँ
अब पतंग के जीवन पर और क्या लिखों
उसका उड़ना निरर्थक सा लगता है ...
स्वार्थ और उससे जुड़े इन रंगों का आकाश चूमना
आकाश की अवहेलना नही तो और क्या है ?...
धुप में कुरसी लगाये
आकाश चूमती इक पतंग पे टक-टकी बांधे बैठा हूँ
दूर से आते चिड़ियों की चेह्कन
गाड़ियों की आवाजें
कुछ दूर बैठी महिलाओं की बातें
और फिर से पतंग की सर सर
धुप का बायीं गाल को सहलाना
और आँखों का स्वयं ही बंद हो जाना
खो जाना कुछ खयालों में
पतंग सा लहराना
उस तडपती पतंग के पीछे किसी
अद्रिशय बालक और डोर का सवार्थ जुड़ा होगा
ये सोच कर हंस पड़ता हूँ
कागज़ पर पड़ी इस कविता के पीछे
इक भावुक मन का स्वार्थ जुड़ा होगा
ये सोच कर हंस पड़ता हूँ
अब पतंग के जीवन पर और क्या लिखों
उसका उड़ना निरर्थक सा लगता है ...
स्वार्थ और उससे जुड़े इन रंगों का आकाश चूमना
आकाश की अवहेलना नही तो और क्या है ?...
Sunday, December 27, 2009
क्यूँ इक भी कविता अब तक दिल को न लुभा पाई है ?
क्यूँ कवियों के इस जमघट पे इक खामोशइ सी छायी है
क्यूँ इक भी कविता अब तक दिल को न लुभा पाई है ?
कहाँ गयी वो लेखन शैली
कहाँ है वो रास विहार
कहाँ गए वो कवी महाजन
कहाँ गया वो श्रींगार
मेरी मानो चुप्पी तोड़ो
आओ बैठो शब्दों को जोड़ो
इक टूटी सी कविता बनाते हैं
मिल कर्र इक स्वर में उसे
फिर प्रेम से गाते हैं
तेरी कविता मेरी कविता
तुझसे अच्छी मेरी कविता
कविता तो बस आखर सरिता
किसकी कविता किसकी सरिता ?
आओ इस फुलवारी में
शब्ब्दों की इस क्यारी में
नए फूलों को उगते हैं
आओ मिल कर
गीत प्रेम का गाते हैं
क्यूँ इक भी कविता अब तक दिल को न लुभा पाई है ?
कहाँ गयी वो लेखन शैली
कहाँ है वो रास विहार
कहाँ गए वो कवी महाजन
कहाँ गया वो श्रींगार
मेरी मानो चुप्पी तोड़ो
आओ बैठो शब्दों को जोड़ो
इक टूटी सी कविता बनाते हैं
मिल कर्र इक स्वर में उसे
फिर प्रेम से गाते हैं
तेरी कविता मेरी कविता
तुझसे अच्छी मेरी कविता
कविता तो बस आखर सरिता
किसकी कविता किसकी सरिता ?
आओ इस फुलवारी में
शब्ब्दों की इस क्यारी में
नए फूलों को उगते हैं
आओ मिल कर
गीत प्रेम का गाते हैं
Thursday, December 24, 2009
याद
याद है क्या तुम्हे वो उस दिन धुप में नंगे पांव मकबरे तक जाना
वो लोगों के फेंके सिक्कों को उठा हर्षाना
दौड़ना उस बूड़े बाबा का लाठी ले कर
वो खेतों खेतों भागते नए गावं पहुच जाना
वो गन्ने तोडना खेतों से
हाथों को फिर सहलाना
वो नेहर किनारे बैठ ज़ोरों से चिल्लाना
गिनना फिर उन सिक्कों का
सिक्कों में जीवन पाना
याद है क्या तुम्हे वो उस दिन धुप में मकबरे तक जाना ???
वो लोगों के फेंके सिक्कों को उठा हर्षाना
दौड़ना उस बूड़े बाबा का लाठी ले कर
वो खेतों खेतों भागते नए गावं पहुच जाना
वो गन्ने तोडना खेतों से
हाथों को फिर सहलाना
वो नेहर किनारे बैठ ज़ोरों से चिल्लाना
गिनना फिर उन सिक्कों का
सिक्कों में जीवन पाना
याद है क्या तुम्हे वो उस दिन धुप में मकबरे तक जाना ???
Saturday, December 19, 2009
हंसी के मुखोटे
चुभ जाना इक हार का दिल तक
आँखों से आंसूं आना
बंद करके दरवाजों को
कमरे में अकेले सो जाना
वो नींद में इक स्वप्ना का आना
झल्लाकर उठ जाना
खिड़की से बाहर झाँक
स्वप्न को जीवित पाना
वो आईने में शकल निहारना
बाल ठीक कर बाहर जाना
वो पूछ देना दोस्तों का
"क्यूँ खुश नही , क्यूँ घबराना ?"
वो हंस कर कहना -
"सो कर आया हूँ ...
सो लगता है रो कर आया हूँ ...
आँख नम है ...जुकाम है शायद
अभी अभी तो मुह धो कर्र आया हूँ "
मन में इक वेदना छिपाए
हृदय में n संन्कल्प दबाये
घूम रहा हूँ गली मोहल्ले
हंसी के मुकोते लगाये ....
आँखों से आंसूं आना
बंद करके दरवाजों को
कमरे में अकेले सो जाना
वो नींद में इक स्वप्ना का आना
झल्लाकर उठ जाना
खिड़की से बाहर झाँक
स्वप्न को जीवित पाना
वो आईने में शकल निहारना
बाल ठीक कर बाहर जाना
वो पूछ देना दोस्तों का
"क्यूँ खुश नही , क्यूँ घबराना ?"
वो हंस कर कहना -
"सो कर आया हूँ ...
सो लगता है रो कर आया हूँ ...
आँख नम है ...जुकाम है शायद
अभी अभी तो मुह धो कर्र आया हूँ "
मन में इक वेदना छिपाए
हृदय में n संन्कल्प दबाये
घूम रहा हूँ गली मोहल्ले
हंसी के मुकोते लगाये ....
ऐसे भी तो दिन आयेंगे
ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन हँसती रातें...
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(Note: Though I am not good at Urdu, its not my mother tounge, but I have made an attempt to translate it. I hope this will convey the gist...
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(Ram V. Sir's explanation) vAsudhEvEndhra yogIndhram nathvA gnApradham gurum | mumukshUNAm hithArThAya thathvaboDhaH aBiDhIyathE || ...
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कभी समय के साथ जो चलकर भूल गया मैं मुस्काना मेरी कविताओं फिर तुम भी धू-धू कर के जल जाना बहुत देर से चलता आया बिन सिसकी बिन आहों के आज अगर ...