Sunday, January 10, 2010

और क्या कहूँ?

कल्पना-परिमिति नापता रहा मैं
और क्या कहूँ?

चहूं ओर स्पंदित अंतर्द्वंद मध्य घिरा मैं
और क्या कहूँ?

भावना हृदय सतह पर वाष्पित होती रहे
मेघ बन गरजा करे
मैं और क्या कहूँ?

मस्तिस्क गर्जन से स्पंदित निरंतर
मैं और क्या कहूँ?

अनुध्वानी आत्मा की सुन मौन खड़ा मैं
और क्या कहूँ?

उपहास, व्यंग, क्रोध अनसुना कर चला मैं
और क्या कहूँ?

नियति न दे सकी विश्रांति मुझे
मैं और क्या कहूँ ?

अनवरत चाहूँ रोकना अभिव्यक्ति के परिविस्तार को मैं
और क्या कहूँ?

मौन मेरा श्रेठ था
मैं और क्या कहूँ?

चाह नहीं अपवाद बनू मैं
और क्या कहूँ?

असमंजस घिरा यहाँ खड़ा मैं
और क्या कहूँ?

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ऐसे भी तो दिन आयेंगे

 ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन  हँसती रातें...