Thursday, February 25, 2010

तब कविता लिखता हूँ

भोर में जब लालिमा सूर्य की
है नब में छा जाती
थाल सजा आरती की मंदिर में
जब तुम छम से आ जाती
तब कविता लिखता हूँ
तब कविता लिखता हूँ

चांदी बदन पर लिपटी साडी
जब पावन आँचल लहराता
मारे शर्म की झुकाती पलकें
चेहरे का रंग गहराता
तब कविता लिखता हूँ
तब कविता लिखता हूँ

देख तुझसी अद्भुत छवि को
जब देवी मूरत मुस्काती
मंदिर के चौखट को छू कर
जब तुम लांघ अन्दर जाती
तब कविता लिखता हूँ
तब कविता लिखता हूँ

प्रभु मंदिर में मन ही मन
जब तुम मुझको अपनाती
फिर देख मुझे अनजान बनकर
सखियों संग हंसती बतियाती
तब कविता लिखता हूँ
तब कविता लिखता हूँ

मन मोहनी हृदय वासिनी
आज तुम्हे बतला दूँ
कहे बिना कुछ तुमको
चीर हृदय दिखला दूँ
कविता बना कबसे मैं तुमको
मन मंदिर में रखता हूँ
याद आती है जब तू मुझको
तब कविता लिखता हूँ
हाँ तब कविता लिखता हूँ ...

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