Tuesday, March 16, 2010

प्रतीक्षा

समझ की मथनी से
आत्म मंथन करते करते
जाने कब ऐसा हुआ
कि मस्तिष्क कि सतेह से भाप बन
शब्दकोश के सारे शब्द
एक एक करके छु हो गए |
मैं अकिंचन
आज आ बैठा कविता तेरी चौखट पर
सारी रात तेरी झोपड़ी के पट को
टक टकी बांधे देखता रहा
तू द्वार खोलती ही नहीं |
तुझ गरीब की झोपड़ी के टूटे छप्परों
से छन छन कर अन्दर जाती चाँदनी
से भाग भी न हैं मेरे
कि एक झलक भी तेरी पालूँ |
बहार पड़ी चारपाई बार बैठा
सारी रात
भावना कि लकड़ियों पर हाथ सेकता
ठिठुरता
कांपता मैं
प्रतीक्षा कर रहा हूँ
पट के खुलने का |
शून्य मेरी आत्म का
कदाचित तू मुखरित कर दे
अभिव्यक्ति की सीमाओं के आगे जाकर
आत्म और बाह्य शरीर के बीच के व्योम को
भर दे |

ey कविता एक anurod बस इतना सा है
अपनी चौखट से khaali न लौटा मुझे
मुझको भी अन्दर आने का
पावन एक अवसर दे ...

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ऐसे भी तो दिन आयेंगे

 ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन  हँसती रातें...