Thursday, September 16, 2010

फासला क्यूँ हो

ता उम्र जिल्लत गुमनामी रहा तेरा नसीब
तुझे खुल्द का हौसला क्यूँ हो ?

गर शाहीन तू मज़हब है उड़ान तेरा
आसियान तेरा ये घोंसला क्यूँ हो ?

खुदा परस्ती मेरी बुरी अब तू बता
लहू में डूबा काबा-ओ-कर्बला क्यूँ हो ?

ईसा या मुहम्मद से हो तो हो ताल्लुख तेरा
इंजील गीता कुरान में फासला क्यूँ हो ?

ये रस्म बहुत थी जहाँ में इक बार आने की
आने जाने का ये सिलसिला क्यूँ हो ?

अपनी गली में जो रहता हूँ अकेला
हर शख्स को मुझसे शिकवा गिला क्यूँ हो ?

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ऐसे भी तो दिन आयेंगे

 ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन  हँसती रातें...