बंद वहाँ उस कमरे में भरी दुपहरी मेरा bachpan
हाय! कब तक शाम के इंतज़ार में रह पता
लू क्या होती मैं क्या जानू
डर तो बस दादी की फटकार का रहता था
दूर से आतीं सायें सायें की आवाजें
बागीचे मुझको बुलाते थें
और मैं दबे पाँव
किवाड़ खोल के धीरे से
चौखट तक आ जाता
छज्जे के नीचे,
पकड़ खम्भे को
जैसे मैं ये कहता हूँ -
"थाम ले तू हाथ मेरे नहीं तो मैं भाग जाऊंगा
और शाम फिर फटकार दादी की मजबूरन मैं खाऊंगा"
पर खम्भा जो न सुनता बात मेरी
मैं मन के बहकावे में आये
धीरे धीरे पाँव बड़ा
बागीचे की ओर निकल जाता
मेड़-मेड़ से होते होते खेतों-खेतों
चलता जाता
याद आती फिर कहानी बंसवार में रहने वाली चुडेल की
और मैं सहमा सहमा सा रह जाता
फिर पलट कर धीरे धीरे अपने घर को मैं आता
और धीरे से दादी के बगल में आकर सो जाता
अंतिम दिन जीवन के यदि ये
पीर हृदय की रह जाए
के दौड़-धूप में बीत गए पल
प्रियतम से कुछ ना कह पाएँ
Thursday, October 28, 2010
ऐसे भी तो दिन आयेंगे
ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन हँसती रातें...
-
(Note: Though I am not good at Urdu, its not my mother tounge, but I have made an attempt to translate it. I hope this will convey the gist...
-
(Ram V. Sir's explanation) vAsudhEvEndhra yogIndhram nathvA gnApradham gurum | mumukshUNAm hithArThAya thathvaboDhaH aBiDhIyathE || ...
-
कभी समय के साथ जो चलकर भूल गया मैं मुस्काना मेरी कविताओं फिर तुम भी धू-धू कर के जल जाना बहुत देर से चलता आया बिन सिसकी बिन आहों के आज अगर ...
No comments:
Post a Comment