Thursday, October 28, 2010

bachpan

बंद वहाँ उस कमरे में भरी दुपहरी मेरा bachpan
हाय! कब तक शाम के इंतज़ार में रह पता
लू क्या होती मैं क्या जानू
डर तो बस दादी की फटकार का रहता था

दूर से आतीं सायें सायें की आवाजें
बागीचे मुझको बुलाते थें
और मैं दबे पाँव
किवाड़ खोल के धीरे से
चौखट तक आ जाता

छज्जे के नीचे,
पकड़ खम्भे को
जैसे मैं ये कहता हूँ -
"थाम ले तू हाथ मेरे नहीं तो मैं भाग जाऊंगा
और शाम फिर फटकार दादी की मजबूरन मैं खाऊंगा"

पर खम्भा जो न सुनता बात मेरी
मैं मन के बहकावे में आये
धीरे धीरे पाँव बड़ा
बागीचे की ओर निकल जाता

मेड़-मेड़ से होते होते खेतों-खेतों
चलता जाता
याद आती फिर कहानी बंसवार में रहने वाली चुडेल की
और मैं सहमा सहमा सा रह जाता
फिर पलट कर धीरे धीरे अपने घर को मैं आता
और धीरे से दादी के बगल में आकर सो जाता

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ऐसे भी तो दिन आयेंगे

 ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन  हँसती रातें...