मैं पूछता रहा उससे के दरिया-ऐ-हयात गहरा तो नहीं
जूँ न रेंगी उसके कानो पे, नाखुदा कहीं बेहरा तो नहीं?
गहराई वाली जगहों पे दरिया में हलचल कम होती है
मैं पत्थर लेकर देख रहा हूँ, के कहीं पानी ठहरा तो नहीं
लोगों के कन्धों से ऊपर अब सब काला काला दिखता है
किस जुबाँ ये सब लिखा है, फारसी में हर चेहरा तो नहीं
जाने कितने ठुकरायें हैं मैंने, इस आज़ादी की चाहत में
हर ताज देख कर डरता हूँ, कम्बखत कहीं सेहरा तो नहीं
झूठ मूठ का क्यूँ हँसते हो ये मुखोटे उतार फेंको यारों
आईनों की सुनते हो क्यूँ, बदसूरत कोई चेहरा तो नहीं
बैठा है संजीदा सा 'चक्रेश', यहाँ हर महफ़िल में
चुप चुप सा क्यूँ वो रहता है कुछ कहने पे पेहरा तो नहीं
अंतिम दिन जीवन के यदि ये
पीर हृदय की रह जाए
के दौड़-धूप में बीत गए पल
प्रियतम से कुछ ना कह पाएँ
ऐसे भी तो दिन आयेंगे
ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन हँसती रातें...
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(Note: Though I am not good at Urdu, its not my mother tounge, but I have made an attempt to translate it. I hope this will convey the gist...
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(Ram V. Sir's explanation) vAsudhEvEndhra yogIndhram nathvA gnApradham gurum | mumukshUNAm hithArThAya thathvaboDhaH aBiDhIyathE || ...
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कभी समय के साथ जो चलकर भूल गया मैं मुस्काना मेरी कविताओं फिर तुम भी धू-धू कर के जल जाना बहुत देर से चलता आया बिन सिसकी बिन आहों के आज अगर ...
3 comments:
सुन्दर अभिव्यक्ति।
बहुत सुन्दर!
Bahut dhanyaavad
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