Tuesday, November 23, 2010

ये तो धड़कन का कसूर है जो जिन्दा होने का एहद कराती है

ये तो धड़कन का कसूर है जो जिन्दा होने का एहद कराती है
मौत आये मुझे बरसो गुजारें बस यूँही सांस आती जाती है

सैकड़ों खंजर हैं मेरी छाती में, खूँ का कतरा नहीं है कोई मगर;
काश समझ पाते ये लोग यहाँ, कलम स्याही कहाँ से लाती है ?

बैठे हैं यहाँ आज मेरी महफ़िल में, इस शहर के समझदार कई
हर शेर पे बहोत खूब कहते हैं, जाने कैसे इन्हें हर बात समझ आती है

मेरा साया मुझको हर शाम एक वही पुराना सवाल दे जाता है
सारा दिन मुट्ठी कस कर रखी थी बंद मैंने ये रेत कैसे सरक जाती है

हर शख्स यहाँ सीते आया है घावों को, रफू किये हैं जाने कितने
'चक्रेश' देखना कैसे जिंदगी ये तुझको, एक दिन दरजी बनाती है

2 comments:

Neeraj said...

waah waah..mast hain

chakresh singh said...

dhayvaad Neeraj ji

ऐसे भी तो दिन आयेंगे

 ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन  हँसती रातें...