Sunday, January 2, 2011

जाने क्या-क्या भुला के बैठें हैं

जाने क्या-क्या भुला के बैठें हैं
घर ख़्वाबों का जला के बैठे हैं

कोई रोता है क्यूँ घर के लुटने पर
लोग यहाँ जिंदगी लुटा के बैठे हैं

रह न जाए इक भी ख्वाब जिन्दा
रात को जेहर पिला के बैठे हैं

खींच ले दिन तू चाँदनी की रिदा
दर्द की गर्म रजाई भरा के बैठे हैं


हौसला है चीखे बिना मर जाने का
अपने मुह को हम दबा के बैठे हैं

1 comment:

Amit Chandra said...

बहुत खुब। बेहद ही खुबसुरती से सॅवारा है इसे आपने। धन्यवाद।

ऐसे भी तो दिन आयेंगे

 ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन  हँसती रातें...