Thursday, February 3, 2011

कई बार समझ की सीमा पर

कई बार समझ की सीमा पर
अवाक खड़ा रह जाता हूँ
देख क्षितिज तक फैले तम को
अघात खड़ा रह जाता हूँ

पीछे की तू तू मैं मैं से आगे
छोड़ वर्त्तमान के कोमल धागे
इधर उधर जो मन भागे
हाथ पकड़ बिठाता हूँ
कई बार समझ की सीमा पर

मन उपवन में फूल फूल
लिपटें संग इनके शूल शूल
बाहर देखूं तो बस धूल धूल 
अंतरमन की नीरसता को
ताक खड़ा रह जाता हूँ
कई बार समझ की सीमा पर

व्योम धरा का विस्तार कहीं
निःसार सगर संसार कहीं
इस भव सागर के पार कहीं
जाना है चलता जाता हूँ
कई बार समझ की सीमा पर

विधि के पहिये खटर-पटर
कर चिंताओं को तितर-बितर
कुछ कहते हैं अंतर में उतर-उतर
हर कविता में खुद को मैं फिर भी,
ठगा हुआ सा पाता हूँ
कई बार समझ की सीमा पर

-ckh

2 comments:

संजय भास्‍कर said...

बहुत पसन्द आया
हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ.

Wierdo said...

awesome.. dil ko chu gayi

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 ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन  हँसती रातें...