Tuesday, October 9, 2012

आइये, बैठिये, कुछ बात करें


आइये, बैठिये, कुछ बात करें| 

अक्सर जीवन में ऐसा भी होता के चलते-चलते हम कुछ ऐसे पडावों पे आ पहुंचाते हैं जहाँ कुछ कहना भी दुश्वार सा हो जाता है| जो सोचते हैं वो कह नहीं पाते, जो कहते हैं वो कुछ ऐसा होता है जिसे सुनकर सुनने वाला बिदक जाता है| ऐसा भी होता है के जी करता है कुछ समय के लिए मौन रख लिया जाए|  ग़ालिब का एक ह्रदय-स्पर्शी शेर है - रही न ताकत-ऐ-गुफ्फ्तार और अगर हो भी, तो किस उम्मीद से कहिये के आरजू क्या है| ताकत-ऐ-गुफ्फ्तार का आशय बात करने की ताकत से है|

अभी कुछ दिंनों पहले की ही बात है अपने एक बहुत पुराने मित्र से मैंने भावुक होकर कहा के, 'जीवन समझ में नहीं आता, हम कुछ क्यूँ करते हैं और न करें तो आखिर क्या करें? क्या यह कैद नहीं है, हम सब बंधे हुए हैं प्रकृति के नियमों से? उतना ही देख सकते हैं जितना कि आँखें देखने दें| उतना ही समझ सकते हैं जीतनी दूर हमारी बुद्धि हमें लेकर जा सके'| मैं अभी  मूल भाव तक पहुँचाने कि कोशिश में था के उसने मुझे टोकते हुए कहा के मैं बहुत सोचता हूँ और इन बातों को कोई मतलब नहीं है| दो पल को ऐसा लगा के 'हमजुबां मिले तो मिले कैसे?' किसके कहो और कैसे कहो| या यह संकेत है के अब मौन रखने का उचित समय आ चूका है|

आज विभिन्य टी.वी. चैनलों पर भांति-भांति के कार्यक्रम आते हैं| मैं अक्सर टी.वी. की आवाज़ बंद करके बस चैनल बदलता रहता हूँ| कहीं गंभीर मनो-भाव के अपनी बातों को ज़ोर देकर रखते समाचारक हैं, तो कहीं रियेलिटी शो के मंच पर थिरकते, गाते, मुस्कुराते और मानो जीवन से बेहद खुश कलाकार, कहीं विदेशी मूल के पर्यटक जंगलों की तसवीरें उतारते तो कहीं तेज़ रफ़्तार गाड़ियां आपस में दौड़ लगाती| कहीं बात-चीत है, कहीं प्रवचन है, कहीं छाती पीटते बाढ़-प्रवाहित, कहीं कॉमेडी शो के ठहाके| जीवन के इस छोटे से सफ़र में क्या नहीं है!
 
क्या आशय होगा इन सब का? जीवन कदाचित कुछ भी नहीं पर है|  बुद्धि के व्यायाम हमें सोचने पर मजबूर कर देते है और उसी बुद्धि का एक सीमा से बहार न जा पाने की शक्ति हमें वापस अपने यथार्थ में खींच लाती है| इसी उहा पोह में कवितायें जन्म लेती हैं| अभिव्यक्त होने की अकुलाहट कुछ लिखवा जाती है| कविताओं को भी संगृहीत कर के जब पढता हूँ तो वही टी.वी चैनलों की भांति एक विविध दृश्य सामने दिखता है| अभिव्यक्ति की अपनी क्षमताएं हैं एक सीमा के बाद मौन ही उत्कृष्ठ लगने लगता है| जो हम सोचें यदि वो कह सकें, जो हम सोचें वो यदि वही हो जो हमें वास्तव में छू रहा हो और इसपर ये भी के सुनाने वाला वही समझे जो हमें कहना हो, तो फिर बातचीत का कोई अर्थ है अन्यथा नहीं| 

इक लेख को यहाँ समाप्त कर दूं या कुछ लिखी ये भी एक प्रश्न उठ रहा है| मुझे लगता है के मैं जो कहना चाह रहा था वो कह चूका हूँ सो और खींच-तान ठीक नहीं होगी, बाकी पाठक पर छोड़ता हूँ|


-ckh

1 comment:

pushkar jha said...

you're looking for the answer to these questions and a vent for them, from where you can release this innate nervous tension. but sadly you're looking for them in empty spaces.don't think that this stupid world will ever oblige to such obscure thoughts.you have to turn away from peers and contemporaries. logon mein humzubaan mat khujo,kitaaabon mein milte hain wo....

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ऐसे भी तो दिन आयेंगे

 ऐसे भी तो दिन आयेंगे, बिलकुल तनहा कर जाएँगे रोयेंगे हम गिर जाएँगे, ख़ामोशी में पछतायेंगे याद करेंगे बीती बातें ख़ुशियों के दिन  हँसती रातें...